Wednesday 23 June 2021

Literature and Society

 



वीणापाणि वाणी – ( साहित्य और समाज)

ब्लॉग का उद्देश्य

नई उमंग नई तरंग के साथ ‘वीणापाणि वाणी’ हिंदी साहित्य ब्लॉग या हिंदी में कहें तो चिट्ठा नामा में आपका स्वागत है।
यहां न कोई आम है ना कोई खास यहां तो केवल और केवल उल्लास है संभव है हम सब मिलकर आज आसमां को छू लेने का चाव रखते हैं और आगे बढ़ना आसमान को छूना हम सब का एकाधिकार है सबको समान अवसर प्राप्त है। जब हमारा उद्देश्य आसमान को छूना है तो फिर भला हम जमीन की ओर क्यों देखे?
अपने सपनों को साकार रूप में बदलने के लिए हमें उसे यथार्थ मूर्त रूप देना पड़ता है हमारा यही सकारात्मक उद्देश्य एक दिन सफलता के नए कीर्तिमान बना देगा

साहित्य और समाज

ज्ञान राशि के संचय कोष का नाम ही साहित्य है या यूं कहिए मानव की भावनाओं की अभिव्यक्ति को ही साहित्य कहते हैं।यदि साहित्य को विश्व मानव का हृदय करें तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि इसमें व्यक्तिगत हृदय की भांति ही सुख-दुख, आशा–निराशा ,साहस–भय ,उत्थान– पतन, उत्कर्ष –अपकर्ष, अश्रु–हास का स्पष्ट रूप में स्पंदन रहता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्य का क्षेत्र अत्यंत विशाल और विस्तृत है मानव जीवन की विशालता ही साहित्य क्षेत्र की सीमा है मानव जीवन का उद्देश्य मात्र केवल जी कर मरना नहीं अपितु जीवन में सत्य की प्रतिष्ठा करना है।
साहित्य के संबंध में पाश्चात्य विद्वानों ने भी अपने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं । कुछ विद्वानों के विचार प्रस्तुत हैं—

१ फोर्ड मेडक़्स—“ साहित्य पुस्तकों की सृष्टि है जिसे मनुष्य आनंद प्राप्ति के लिए पढ़ते हैं और पढ़ते ही चले जाते हैं।”

२ एमसंग–”भव्य विचारों का संग्रह ही साहित्य है। “

३ हडसन—”साहित्य में केवल वही पुस्तके सम्मिलित है जो अपने विषय एवं उनकी प्रतिपादन शैली के कारण साधारण तथा मानव के लिए उपयोगी और रुचिकर है।”

इसी प्रकार अन्य विद्वानों ने भी साहित्य के संबंध में अपने भिन्न-भिन्न विचार प्रकट किए हैं।
कला कला के लिए”इस उक्ति के समर्थक विद्वान कला साहित्य को केवल मनुष्य की आनंद प्राप्ति का साधन मात्र स्वीकार करते हैं कला निर्मित साहित्य को चरम इति मानना और उसका जीवन से तनिक भी संबंध स्वीकार ना करना कुछ विद्वानों के मत में उपयुक्त नहीं। वस्तुतः साहित्य और जीवन का आपस में इतना घनिष्ठ संबंध है कि एक दूसरे को पृथक नहीं किया जा सकता वह तो एक दूसरे के पूरक है एक के अभाव में दूसरा आधा अधूरा है।साहित्य के बिना जीवन और जीवन के बिना साहित्य में नीरसता आ जाती है जिस प्रकार सृष्टि और सृष्टि कर्ता, प्रकृति और पुरुष, नदी और तट, कल्पना और बुद्धि एक दूसरे से पृथक नहीं किए जा सकते उसी प्रकार जीवन और साहित्य का संबंध अटूट है इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है।
साहित्य और जीवन के अटूट संबंध का कारण है उसका मूल स्रोत आधार कल्पना । जब किसी देश में उच्च कल्पना शक्ति वाले महान पुरुष जन्म लेते हैं तो वह देश, वह राज्य, वह समाज उन्नति के शिखर पर पहुंच जाते हैं।

समाज पर युग की भाव धाराओं का प्रभाव पड़ता है साहित्य में उसका लेखा-जोखा रहता है किंतु उन भावनाओं को साहित्य नयी प्रेरणा देकर नये समाज का निर्माण भी करता है। संसार के इतिहास का अगर हम अध्ययन करें तो हमें विदित होता है कि समाज की सामाजिक व राजनीतिक आदि परिस्थितियों में साहित्य ने विचित्र एवं आश्चर्यजनक परिवर्तन किए हैं समाज में परिवर्तन लाने की जो शक्ति साहित्य में छिपी है वह तोप, तलवार, या किसी परमाणु बम में भी नहीं है।
साहित्य रूप में या कुरूप, में सब में सौंदर्य की खोज करता है साहित्य का कार्य है मनुष्य के लिए अलौकिक आनंद की सृष्टि करना। इसके लिए वह सुंदर वस्तुओं का वर्णन करता है परंतु असुंदर वस्तुओं का वर्णन भी उसे करना होता है। जीवन में सुख है, मनोहारी दृश्य है, आदरशोन्मुखी मनुष्य से संपर्क होता है— तो जीवन में दुख भी हैं, मन को व्यथित कर देने वाले दृश्य भी हैं । साहित्य में उन सब का वर्णन रहता है साहित्य में नवरस माने गए हैं साहित्य उन सभी का आदान प्रदान करता है। साहित्य श्रृंगार रस का भी रसपूर्ण वर्णन करता है तो वीभत्स रस का भी। हिंदी के महान साहित्यकार भारतेंदु कृत श्मशान– वर्णन में वीभत्स रस हमारे हृदय को कोमल बनाने और आदर्श की भावना को जगाने में सहायक सिद्ध हुआ।
विश्व साहित्य के देखे तो साहित्य ने राष्ट्रों का पुनरुत्थान किया, साहित्य ने पोप का प्रभुत्व कम किया, फ्रांस में साहित्य ने प्रजा की सत्ता स्थापित की, इटली का उत्थान साहित्य ने किया , भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में साहित्य का विशेष योगदान रहा । सार यह है कि जो जाति साहित्य की रक्षा तथा नवीन साहित्य सर्जन नहीं करती वह अज्ञान अंधकार के गर्त में गिर जाती है और एक दिन उसका नाम भी विश्व से मिट जाता है। जिसे साहित्य के प्रति अनुराग नहीं है तो वह समाज द्रोही , देशद्रोही है यही नहीं उसे हम आत्म द्रोही या आत्महंता भी कह सकते हैं।